MA Semester-1 Sociology paper-III - Social Stratification and Mobility - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर -

भारतीय जनजातियों की प्रमुख समस्याएँ एवं उनका समाधान
(Major Problems of Indian Tribes and their Solution)

अनुसूचित जातियों की तरह अनुसूचित जनजातियाँ भी विविध प्रकार की समस्याओं का शिकार हैं। इनकी कुछ समस्याएँ तो अनुसूचित जातियों से मिलती-जुलती हैं, जबकि कुछ इनकी अपनी विशिष्ट समस्याएँ हैं। इनकी प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं-

(1) वनों के नए कानून और जनजातीय जीवन - सबसे पहले वनों पर जनजाति समाज का स्पष्ट और प्रभावी अधिकार था। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा ने वनों के सम्बन्ध में परिवर्तन प्रक्रिया का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है, "समय के साथ राज्य ने अपना कोई अधिकार जताए बिना वनों का आर्थिक दोहन प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे पैर जमाने पर राज्य ने कानूनी आधिपत्य प्रतिष्ठित किया, उनके आर्थिक दोहन को दीर्घकालीन आयाम दिया और उनको सघन भी किया परन्तु उसके साथ ही आदिवासियों के द्वारा वनं साधनों के उपयोग के अधिकार को भी स्वीकार किया। कालान्तर में अधिकारों को रियायतों का रूप दिया गया और अन्तिम चरण में संसाधनों में राज्य के स्वामित्व को औपचारिक रूप देकर नैगम स्वामित्व का आवरण दे दिया गया। अब उनका दोहन आय-व्यय, निवेश-उत्पादन इत्यादि के आधार पर ही सम्भव है, जिसमें आदिवासी अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं का जिक्र और समावेश अन्तर्गत और क्षोभ कारक ही बन जाता है।" स्पष्टतः इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आदिवासी अर्थव्यवस्थाः छिन्न-भिन्न हो गई है। उनके जीवन यापन के साधन छिन गए हैं और जीवन अस्तित्व की विकट समस्या उपस्थित हो गई है।

इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब वन विभाग आदिवासी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सामाजिक वानिकी (Social forestry) के कार्यक्रम बनाए। वनों के संरक्षण और वनों के उत्पादन में आदिवासियों को रोजगार दिया जाना चाहिए। साथ ही, वन उपज पर आधारित लघु उद्योग लगाने के लिए आदिवासियों को आवश्यक प्रशिक्षण और प्रेरणा भी दी जानी चाहिए।

(2) सामाजिक सांस्कृतिक सामंजस्य सम्बन्धी समस्याएँ - मजूमदार तथा मदन ने उन समस्याओं का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है, जो बाह्य संस्कृति के साथ सम्पर्कों के कारण उत्पन्न हो रही हैं। वास्तव में, यह सामाजिक-सांस्कृतिक सामंजस्य की समस्याएँ हैं, जो आदिवासियों के बाह्य बलों के साथ या उनके सम्पर्कों के परिणामस्वरूप पैदा होती हैं। उनमें प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

(i) नए सामाजिक संस्तरण का उदय - बाह्य समूह एक उन्नत और शक्तिशाली रूप में जनजातियों के सम्मुख आए हैं। इसलिए न केवल उनके मस्तिष्क में वरन् जनजाति के लोगों के मस्तिष्क में भी एक स्पष्ट श्रेष्ठता या निम्नता का संस्तरण बन गया है। इन बाह्य शक्तियों के मन में इन जंगली लोगों को सभ्य बनाने की तीव्र अभिलाषा भी है, चाहे वह बाह्य शक्तियाँ हिन्दू हैं या गैर-हिन्दू, विशेषतः ईसाई। ईसाइयों ने उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित, किया है पर हिन्दुओं को श्रेष्ठ समझकर जनजाति खुद हिन्दू जाति संरचना में प्रवेश पाने के लिए प्रयत्नशील रही है, परन्तु प्रायः इस प्रयास में सफल होने पर भी जनजातियों को या उनके अधिकांश भाग को हिन्दू संरचना में निम्न श्रेणी ही मिली है। कहीं-कहीं तो वह, अस्पृश्यता सम्बन्धी विचारों व तौर-तरीकों के शिकार हुए हैं, जिन्हें वह समझ पाने या जिनका सामना करने में असफल रहे हैं। इतना ही नहीं, वरन् खुद जनजाति समाज में भी संस्तरण की दीवार खड़ी हो गई है। उनका पहले से प्रभुत्वशाली वर्ग, या जो सामंजस्य करने में पहले सफल हो गए और नई सुविधाओं का लाभ उठा पाए, ऊँची श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। शेष अधिकांश जनजाति निम्न कमजोर वर्ग के रूप में जीवन बिताने को मजबूर है। विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का लाभ भी जनजातियों का यह उच्च वर्ग ही उठा जाता है और कमजोर वर्ग पहले की भाँति उपेक्षित और शोषित रह जाता है।

(ii) द्विभाषा की समस्या – बाह्य सम्पर्क के कारण जनजातियों में द्विभाषावाद की समस्या उठ खड़ी हुई है। कहीं-कहीं तो जनजाति के लोग नई भाषा को सीखने में इतने उत्साह से आगे बढ़े कि अपनी भाषा के महत्त्व को ही भूल गए। यह सच है कि आदिवासी पड़ोसियों से बातचीत करने लगे परन्तु हर भाषा के प्रतीक और उनके अर्थ अलग-अलग होते हैं। इस तरह, आदिवासियों के जीवन में एक शून्य ( खालीपन ) बन गया है और न तो वह बाहरी भाषा के मूल्य जीवन में ला पाए हैं और न अपनी ही भाषा के सन्दर्भों को सुरक्षित रख पाए हैं।

(iii) वस्त्र विवाद - अधिकांशतः आदिवासी न्यूनतम वस्त्रों का प्रयोग करते आए हैं। " कहीं-कहीं तो वे नंगे रहते थे परन्तु जब वे बाहरी समूहों को गर्दन के नीचे तक वस्त्रों से ढका देखते हैं और ये समूह उनकी नग्नता को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं तो वे स्वयं को लज्जित महसूस करने लगते हैं और अपने को वस्त्रों से ढकने के लिए मजबूर हो गए हैं, परन्तु उन्होंने अभी आधुनिक स्वच्छता के नियमों से परिचय नहीं पाया है और न उसके महत्त्व को समझा है। परिणामतः उनके कपड़ों में बदबू आने लगती है और जूँ तक पड़ जाती हैं जिनसे रोग होने लगते हैं। इसलिए उन्हें शारीरिक सफाई विज्ञान से भी परिचय दिया जाना चाहिए और यथेष्ट मात्रा में साबुन इत्यादि उनके पास होना चाहिए। मजूमदार व मदन ने उचित ही लिखा है कि सिवाय बहुत ही ठण्डे क्षेत्रों के, कोई कारण नहीं है कि न्यूनतम वस्त्रों की प्रथा को समर्थन न दिया जाए। धूप व खुली हवा शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है और आर्थिक बोझ को भी कम करती है।

(iv) सामाजिक संगठन में परिवर्तन - सांस्कृतिक सम्पर्कों से जनजातियों की महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ बदलने लगी हैं, जैसे—-कुछ जनजातियाँ युवागृह जैसी संस्था को छोड़ने लगी हैं। ये युवागृह बहुउद्देशीय थे। इनमें नई पीढ़ी अनौपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण करती थी और नृत्य, संगीत, खेल-कूद द्वारा यहाँ व्यस्त जीवन की जिम्मेदारियों के लिए व्यक्ति तैयार होता था। घर भी उन तनावों से बच जाता था जो पीढ़ियों की समीपता से पैदा होता है। ऐसी संस्थाओं का ह्रास उनके सामाजिक संगठन में परिवर्तन कर रहा है।
उपर्युक्त सभी परिवर्तन ऐसे हैं कि जनजातियों में जो कुछ मौजूद रहा है उसमें ह्रास हो रहा है और जो कुछ उसकी जगह उन्हें मिल रहा है वह उनके परम्परागत विचारों, साधनों या व्यवहारों के साथ मेल नहीं खाता। इस समस्या का समाधान परसंस्कृतिकरण से उत्पन्न सामंजस्य का अधिक तार्किक, मानवीय और स्वाभाविक बनाने में निहित है। यह उचित होगा कि सामंजस्य के नए प्रतिमान तय करने में जनजाति के मुखियाओं और शिक्षित व्यक्तियों को ही निर्णयों का मौका दिया जाए। उनके द्वारा निर्धारित सामंजस्य स्वीकृत किया जाना चाहिए और उसे बल प्रदान किया जाना चाहिए।

(3) धार्मिक संरचना में ह्रास – जनजातियों का धर्म और जादू-टोना उनके ऐतिहासिक परिस्थिति के साथ अनुकूल का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। वह अनेक पीढ़ियों के अनुभवों पर आधारित है। वह उनके जीवन चक्र को और सामाजिक जीवन की प्रमुख वार्षिक क्रियाओं को नियमित करता है। यही नहीं, महामारी या ऐसी ही आकस्मिक विषम परिस्थितियों और दुर्घटनाओं में उन्हें सहारा और आश्वासन प्रदान करता है। सभ्य समाजों के सम्पर्क में आकर, चाहे वह हिन्दू धार्मिक दर्शन हो अथवा ईसाई धर्म, जनजाति के लोग अपने धार्मिक विश्वासों और क्रियाओं की आस्था खोते जा रहे हैं। वे ऐसी नाव में सवार हो गए हैं कि जीवन की उत्तंग लहरों से जूझते हुए उनके माँझी की पतवार ही छूटकर बह गई हो। उनके आध्यात्मिक सहारे बिखर गए हैं और वे मूल्यों के संकट में पड़ गए हैं।

इस संकट का समाधान बाह्य धार्मिक प्रचारकों के हाथ में है। उन्हें याद रखना चाहिए कि प्रत्येक धर्म आस्था पर आधारित होता है। वह विश्वासों, संस्कारों और गाथाओं का एक समन्वित रूप है। कौन-सा धर्म अच्छा है और कौन-सा धर्म भ्रमपूर्ण है यह बहस ही निरर्थक है। इसलिए जनजाति के मौलिक धार्मिक संगठन को सम्मान दिया जाना चाहिए और उसमें परिवर्तन को उद्विकासीय गति से विकसित होने का मौका मिलना चाहिए। यह आवश्यक रूप से एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है जिसमें हस्तक्षेप के परिणाम घातक हो सकते हैं।

(4) राजनीतिक संगठन में जटिलता - जनजातीय परिवेश राजनीतिक जटिलता का भी शिकार हो गया है। वहाँ परम्परागत जनजाति पंचायत, उसके मुखिया या देशमुख भी बने हुए हैं और प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण पर आधारित पंचायतों के गठन के भी प्रयास किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, प्रशासन कर्मचारी, जैसे- पटवारी, चौकीदार, थानेदार आदि भी जनजाति के जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वन अधिकारी और विकास अधिकारी भी जनजातियों के लिए समझ में न आने वाली राजनीतिक संगठन की जटिलता में योगदान दे रहे हैं।

इसी प्रकार, उनकी परम्परागत पंचायती न्याय व्यवस्था में भी दरारे पड़ने लगी हैं। पढ़े-लिखे आदिवासी या समृद्ध आदिवासी परम्परागत पंचायत के फैसलों की उपेक्षा करने लगे हैं। अदालतों पर आधारित आधुनिक न्याय व्यवस्था की पेचीदगी उनकी समझ से बाहर है और वे भोले-भाले लोग इसमें फँस कर लुट जाते हैं।

देश में प्रजातान्त्रिक प्रणाली, जो बहुदलीय व्यवस्था पर आधारित है, भी जहाँ उनमें नई राजनीतिक चेतना पैदा कर रही है, वहाँ पर राजनीतिकबाजों के कुचक्रों का उन्हें शिकार भी बना रही है। राजनीति उन्हें झूठे आश्वासन देती है, जो उनकी निराशाओं को बढ़ाता है और कई जगह चुनाव की राजनीति उनमें दंगे और विद्रोह को भड़कती है।

इन सभी राजनीतिक प्रक्रियाओं से जटिल समस्याओं का हल तभी हो सकता है जब हम जनजाति-क्षेत्रों के लिए राजनीतिक ढाँचे को सरल बनाएँ। यह नया राजनीतिक ढाँचा ऐसा हो जो उनके परम्परागत तत्त्वों को अपने में शामिल कर सके। सार्वभौमिक मताधिकार तो सबको मिलना चाहिए लेकिन यह हो सकता है कि हम जनजातीय क्षेत्रों में प्रतिनिधियों के . चुनाव की प्रक्रिया को कुछ भिन्न रूप में लागू करें। परम्परागत न्याय व्यवस्था को अधिक शक्ति प्रदान की जानी चाहिए और सामान्य रूप से उनके निर्णयों का अदालतों में मान किया जाना चाहिए, जब तक कि कोई स्पष्ट अन्याय का मामला न दिखाई देता हो। माननीय जजों को न्याय-अन्याय का निर्धारण करते समय सम्बन्धित जनजाति के इतिहास व परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए जनजाति की दृष्टि से ही प्रत्येक मामले को देखना चाहिए न कि आधुनिक शिक्षा या कानून की दृष्टि से। इसी भाँति, प्रशासनिक व विकास कर्मचारी भी व्यावहारिक 'मानवशास्त्र की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण दिए जाने पर ही जनजातीय इलाकों में नियुक्त किए जाने चाहिएँ।

(5) शैक्षिक समस्या - जनजाति के लोग शिक्षा के महत्त्व को समझने लगे हैं और वे शिक्षा के अवसरों की माँग भी कर रहे हैं। सरकार ने उनके लिए छात्रवृत्तियों या आरक्षित प्रवेश या छात्रावास सुविधाओं की नीतियों को अपनाया है, परन्तु हमें ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी बाहरी नई व्यवस्था को, चाहे वह कितनी भी अच्छी क्यों न हो, सीधे रूप से अन्य सामाजिक- सांस्कृतिक समूह पर आरोपित नहीं किया जा सकता। आधुनिक स्कूलों की औपचारिक शिक्षा प्रणाली वहाँ सफल नहीं होगी। एक तो नितांत गरीबी उन्हें आगे बढ़ने नहीं देती और वे बीच में ही पढ़ाई छोड़ जाते हैं, दूसरे अक्षर ज्ञान पर आधारित सामान्य पाठ्यक्रम जनजातियों के बच्चों को आकर्षित नहीं कर पाते। यह शिक्षा उन्हें अपने जीवन के लिए सन्दर्भ हीन लगती है। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा ने इस दिशा में बड़ा सुन्दर उदाहरण दिया है कि यहाँ स्कूल की एक अध्यापिका ने जनजातीय बालक की किसी गलती पर उसे डाँटा और उसके कान पकड़े। अगले दिन से बालक ने स्कूल आना छोड़ दिया। जब उससे पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया तो उसने कहा कि 'ढौंकी' (स्त्री) के हाथ से वहाँ पिटने नहीं जाएगा, यह तो उसका अपमान है, फिर वह मर्द काहे का है?

स्पष्ट है कि शिक्षा के पाठ्यक्रम व शिक्षण दोनों में ही परिवर्तन करना होगा। शिक्षा व्यवस्था सम्बन्धित जनजाति के परिवेश के अनुसार हो और जनजाति की आवश्यकता को पूरा करने वाले पाठ्यक्रम हों तो सम्भवतः वे इसकी ओर आकर्षित हो जाएँ।

(6) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सम्बन्धी समस्या – सांस्कृतिक सम्पर्कों ने कुछ नई बीमारियों को आदिवासी क्षेत्रों में फैलाया है कि जिनसे लड़ने के लिए उनकी परम्परागत जादू-टोने और जड़ी-बूटियों पर आधारित चिकित्सा प्रणाली पर्याप्त नहीं है। उदाहरणार्थ, यौन रोग, टी० बी० आदि को वे नहीं समझ पा रहे हैं। आधुनिक चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएँ या तो हैं ही नहीं और अगर हैं भी तो बड़ी दूर-दूर बिखरी हुई और नहीं के बराबर है। इस परिस्थिति ने जनजातियों में ऐसा नैराश्य भर दिया है कि वे जीने का उत्साह भूलने लगे हैं।

स्वास्थ्य मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। इसलिये यह ज़रूरी है कि उनकी परम्परागत चिकित्सा प्रणाली का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए और जो जादू-टोने या जड़ी-बूटियाँ उपयोगी सिद्ध हों उन्हें चिकित्सा प्रणाली में सम्मिलित कर लिया जाए। साथ ही, कुछ प्राथमिक उपचार जैसे तरीकों की जनजाति के युवाओं को प्रशिक्षा दी जाए और उन्हें चिकित्सा प्रणाली का एक अंग बनाया जाए। इस दिशा में ईसाई मिशनरियों के कार्य की प्रशंसा की जानी चाहिए।

(7) स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में ह्रास - जनजातियों में महिलाओं की स्थिति बड़ी विषम होती जा रही है। ब्रह्मदेव शर्मा ने अनेक ऐसी परिस्थितियों का वर्णन किया है, जहाँ जनजाति की भोली-भाली किशोरियों, जो समानता, स्वतन्त्रता व शिथिल यौन नैतिकता के पर्यावरण में पली हैं, कैसे इन सभ्य कहलाने वाले छोटे-मोटे अधिकारी, व्यापारी, तकनीशियन या श्रमिकों द्वारा छली जाती हैं। कभी धोखे, कभी पैसे के बल पर, कभी केवल शक्ति प्रयोग से इन अल्हड़ बालाओं को अपनी अंकशायनी बना लेते हैं। शर्मा के शब्दों में ही "कभी-कभी तो मीठी गोलियाँ, नहाने के साबुन की टिकिया, पाउडर का डिब्बा आदि तक इन मासूम किशोरियों को फाँसने के लिए पर्याप्त होता है।" वे एक खुशहाल आरामदेह जिन्दगी के लिए आकर्षित होती हैं परन्तु जब उन्हें पता चलता है कि सभ्य मनुष्य के लिए स्त्री एक " कमजोर वर्ग" है, परावलम्बी है और इस सभ्य मानव ने उसे कोई स्थायी सहारा नहीं दिया है तो उसका मोह जाल टूटता है। वह परिवार में साझेदारी, निर्णयों में समानता के मूल्यों पर आधारित सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्धित होती है। वह पाती हैं कि वह दोहरे पतन के जाल में फँस गई है। एक ओर तो वह साहब की केवल 'रखैल' है जिसकी देह का मोल कुछ सिक्कों के सिवाय कुछ नहीं है, तो दूसरी ओर वह अपने समाज में स्वयं को तिरस्कृत और कभी-कभी बहिष्कृत पाती है। जनजाति समाज ऐसी स्त्रियों को प्रायः अपराधी मानते हैं जो किसी की पैसों के लिए रखैल बन जाए और सन्तान उत्पन्न करे। ऐसी महिलाओं का समाज में पुनर्वास एक कठिन समस्या बन जाता है।

महिलाओं का यौन शोषण ही उनकी सामाजिक प्रस्थिति में ह्रास का एकमात्र कारण नहीं है बल्कि बाह्य सम्पर्कों के प्रभाव में आकर जो उन पर नई सामाजिक नैतिकता लादी जा रही है, वह भी उनकी परम्परागत प्रस्थिति में ह्रास का कारण है। उदाहरणार्थ, वे अब पुरुषों के साथ नृत्य आदि में भाग नहीं लेतीं अथवा उनमें पर्दे का समावेश होने लगा है। यदि उनका कार्य-क्षेत्र घर और रसोई तक ही सीमित किया जाने लगे तो स्वाभाविक ही हिन्दू स्त्रियों की भाँति उनकी सामाजिक प्रस्थिति भी पुरुष की तुलना में नीची हो जाना स्वाभाविक ही है। यहाँ हम यह भी कहना चाहेंगे कि यौन नैतिकता में अत्यधिक शिथिलता या तलाकों की दर अधिक होना या ऊँचे वधू मूल्य होना जैसी कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिनमें धीरे-धीरे परिवर्तन वांछनीय ही होगा।

(8) नशावृत्ति - मद्यपान यद्यपि जनजातियों में सामान्य जीवन का एक अंग रहा है तथापि आबकारी कानून के अन्तर्गत दृश्य कुछ बदल गया है। पहले वे अपने घरों में ही परम्परागत तरीकों से स्थानीय चीजों, जैसे- महुआ अथवा मडुआ से शराब निकालते थे और प्रथा के अनुसार नियमित मात्रा में लेते थे परन्तु अब घरों में शराब खींचना गैर-कानूनी है, शराब उन्हें ठेकों पर मिलती है, शराब के ठेकेदार एक नया शोषक तत्त्व बन जाता है और धीरे-धीरे आदिवासी इस शराब के आदी बन जाते हैं और शराब के लिए या शराब के प्रभाव में अनेक गलत कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

इस समस्या के सम्बन्ध में हम यही सुझाव देंगे कि आबकारी के नियमों में संशोधन किया जाए। आदिवासी क्षेत्रों में शराब के ठेके हटाये जाएँ, जनजातियों को पूर्ववत् इस दिशा में अपने जीवन को नियन्त्रित करने का अधिकार मिलें। हमें यह जानकारी मिली है कि उत्तर प्रदेश की भोटिया जनजाति में कई गाँवों में महिलाओं ने शराबखोरी के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन छेड़ा, ठेकों का घेराव किया, उनकी बोतलें तोड़ी, वहाँ प्रदर्शन किए और अपने अभियान में काफी सीमा तक सफलता प्राप्त की है।

(9) अपराध व कानून सम्बन्धी समस्याएँ - कुछ जनजातियाँ अंग्रेजी शासनकाल से ही अपराधी जनजातियाँ मानी जाती थीं। चोरी, ठगी और डकैती कराना जिसका व्यवसाय बन गया था। उत्तर प्रदेश की बावरिया जनजाति ऐसी ही भूतपूर्व अपराधी जनजाति है। उनके पुनर्वास का प्रयास किया जा रहा है लेकिन दुःख इस बात का है कि अनेक जनजातियाँ कानून का उल्लंघन करने के लिए बाध्य हो गई हैं क्योंकि उनके जीवन निर्वाह के परम्परागत साधन उनसे छिन गए हैं। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा के शब्दों में, "ह्रासशील संसाधन, धनुष और बाण की सतत् परम्परा और बढ़ती हुई आबादी ने कुछ आत्यन्तिक स्थितियों को जन्म दिया जिनके कारण जीवन-धारण के लिए आदिवासियों को लूटमार के लिए बाध्य होना पड़ा।" उन्होंने भीलों का उदाहरण दिया है जो चोरी को पाप समझते हैं और अपने भरण-पोषण के लिए बाहुबल का प्रयोग करना अनिवार्य समझते हैं। इसलिए वे भारी जोखिम उठाकर भी डकैती डालते हैं। झाबुआ के अलि राजपुर क्षेत्र में राहजनी एक आम बात हो गई है। इसी प्रकार, कुछ अंचलों में गैर-कानूनी ढंग से जलाऊ अथवा बहुमूल्य लकड़ी काटकर बेचना आदिवासियों का धंधा बन गया है। ऐसे मामलों में उच्च समाज के भ्रष्ट अधिकारियों और अपराधी तत्त्वों के साथ ऐसे आदिवासियों का गठबन्धन हो जाता है, जो उन्हें अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। स्पष्ट है कि यह समस्या जीवन के निर्वाह की समस्या के साथ जुड़ी हुई है। इसलिए जैसा पहले भी कहा गया है कि रोजगार के नए अवसर, गृह व कुटीर उद्योग, वनों के नियमों में परिवर्तन से ही इस बीमारी का इलाज हो सकता है।

(10) जनजाति विद्रोह - अन्तिम रूप से, जनजाति आक्रोश और विद्रोह को भी एक समस्या के रूप में वर्णन करना चाहेंगे। वास्तव में, जनजातियों की समस्याएँ सांस्कृतिक संकट, आर्थिक बेरोजगारी और शोषण की समस्याएँ हैं। जब कोई जनजाति इसके कारण समझने में या उचित निदान खोजने में असफल और हताश हो जाती है तो अस्तित्व के लिए विद्रोह का रास्ता अपना लेती है। नागा और मिजो, टुण्ड्रा, संथाल गोंड़ और भील जनजातियों में विद्रोह का लम्बा इतिहास है। सबसे नवीनतम क्रान्ति नक्सलपंथी क्रान्ति थी, जो पश्चिमी बंगाल में आदिवासियों में शुरू हुई। इसके प्रेरक कट्टर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट थे। जिनका विश्वास था कि क्रान्ति बन्दूक की नाली से ही होती है। यह क्रान्ति भारत के अनेक गाँवों एवं नगरों में पहुँची। यद्यपि यह सच है कि भारतीय प्रशासन इस क्रान्ति को कुचलने में सफल रहा है तथापि इसने यह सिद्ध कर दिया, कि शोषण से जीवन आक्रोश बारूद के समान है जो किसी भी चिंगारी से विस्फोट में बदल सकता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

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